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वने॑षु॒ व्य१॒॑न्तरि॑क्षं ततान॒ वाज॒मर्व॑त्सु॒ पय॑ उ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्सु क्रतुं॒ वरु॑णो अ॒प्स्व१॒॑ग्निं दि॒वि सूर्य॑मदधा॒त्सोम॒मद्रौ॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vaneṣu vy antarikṣaṁ tatāna vājam arvatsu paya usriyāsu | hṛtsu kratuṁ varuṇo apsv agniṁ divi sūryam adadhāt somam adrau ||

पद पाठ

वने॑षु। वि। अ॒न्तरि॑क्षम्। त॒ता॒न॒। वाज॑म्। अर्व॑त्ऽसु। पयः॑। उ॒स्रिया॑सु। हृ॒त्ऽसु। क्रतु॑म्। वरु॑णः। अ॒प्ऽसु। अ॒ग्निम्। दि॒वि। सूर्यम्। अ॒द॒धा॒त्। सोम॑म्। अद्रौ॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:85» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:30» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उस परमेश्वर ने क्या किया, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर (वनेषु) किरणों वा जंगलों में (अन्तरिक्षम्) जल को (अर्वत्सु) घोड़ों में (वाजम्) वेग को और (उस्रियासु) पृथिवियों में (पयः) जल वा रस को (हृत्सु) हृदयों में (क्रतुम्) विशेष ज्ञान को (अप्सु) आकाश प्रदेशों में (अग्निम्) अग्नि को (दिवि) प्रकाश में (सूर्य्यम्) सूर्य्य को (अद्रौ) मेघ में (सोमम्) रस को (अदधात्) धारण करता है वह (वरुणः) श्रेष्ठ परमात्मा सम्पूर्ण जगत् को (वि, ततान) विस्तृत करता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! जिस जगदीश्वर ने सम्पूर्ण जगत् को विस्तृत किया, उसी का निरन्तर ध्यान करो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्स परमेश्वरः किं कृतवानित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरो वनेष्वन्तरिक्षमर्वत्सु वाजमुस्रियासु पयो हृत्सु क्रतुमप्स्वग्निं दिवि सूर्य्यमद्रौ सोममदधात्स वरुणः सर्वं जगद्वि ततान ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वनेषु) किरणेषु जङ्गलेषु वा (वि) (अन्तरिक्षम्) जलम् (ततान) तनोति (वाजम्) वेगम् (अर्वत्सु) अश्वेषु (पयः) उदकं रसं वा (उस्रियासु) पृथिवीषु (हृत्सु) हृदयेषु (क्रतुम्) प्रज्ञानम् (वरुणः) श्रेष्ठः (अप्सु) आकाशप्रदेशेषु (अग्निम्) पावकम् (दिवि) प्रकाशे (सूर्य्यम्) (अदधात्) दधाति (सोमम्) रसम् (अद्रौ) मेघे ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! येन जगदीश्वरेण सर्वं जगद् विस्तारितं तमेव सततं ध्यायन्तु ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो! ज्या जगदीश्वराने संपूर्ण जगाचा विस्तार केलेला आहे. त्याचे सतत ध्यान करा. ॥ २ ॥